सुधी पाठकों ! वेद-सार में संस्कृत में लिखे मंत्र वेदों और वेदों पर आधारित पुस्तकों से लिए गए हैं .फिर भी ट्रांस लिट्रेसन के कारण छोटी मोटी त्रुटि संभव है . वेद मन्त्रों के अर्थ संस्कृत के बड़े बड़े विद्वानों द्वारा किये गए अर्थ का ही अंग्रेजीकरण है . हिंदी की कविता मेरा अपना भाव है जो शब्दशः अनुवाद न होकर काव्यात्मक रूप से किया गया भावानुवाद है . इस लिए पाठक इस ब्लॉग को ज्ञान वर्धन का साधन मानकर ही आस्वादन करें . हार्दिक स्वागत और धन्यवाद .



Thursday, June 13, 2013

ईशावास्योपनिषद मन्त्र -१


ईशा वास्यम् इदम् सर्वम् , यत् किञ्च जग्त्यम् जगत् । 
तेन् त्यक्तेन् भुञ्जिथा : , मा ग्रुध : कस्य् स्वित् धनम् ।। 1 ।। 
(यजु. ४०/1) 


He, the Supreme Lord, is present in all the animate and inanimate of the world and he is providing the energy and movement to this world. One can enjoy the wealth of this world not by coveting to possess it but by being benefitted with a feeling that The Lord is the owner of it all. This conscious awareness will keep one away from worldly grief and will provide purest form of pleasure of life.


गति कोई तो देता है कण कण में 
गति को गति देता है जो  क्षण क्षण में 

पूरे ब्रह्माण्ड का जो इक स्वामी है 
मौजूद हर जगह अंतर्यामी है 

सब कुछ उसका  , उसकी ही सत्ता है 
उसकी मर्जी से हिलता पत्ता है 

धरती वाले तू इतना जान ले 
ना  है तेरा अपना कुछ , मान ले

उपभोग करो इस जग की संपत्ति का 
उपकार समझ करइसको भूपति का

निर्लिप्त भाव से जीवन को जी ले  
उसकी किरपा का अमृत रस पी ले 

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